मद्रास राज्य:संविधान सभा के सदस्य


मद्रास राज्य से कुल 49 सदस्यों को नामित किया गया जिनमे प्रमुख रुप से सर्वश्री ओ. वी. अलगेसन, श्रीमती अम्मू स्वामिनाथन, मोतूरी सत्य नारायण, एन. गोपालस्वामी अय्यंगार, बी. पट्टाभि सीमारामैया, एन. संजीव रेड्डी (जो कि बाद में राष्ट्रपति भी निर्वाचित हुए) पी. सुब्बाराव आदि।

मद्रास
1. ओ.वी. अलगेसन:
2. श्रीमती अम्मू स्वामिनाथन
यह बात 24 नवंबर 1949 को संविधान सभा की सदस्या अम्मू स्वामीनाथन ने संविधान के मसौदे पर चर्चा के दौरान अपने भाषण में कहा था। संविधान तैयार करने के लिए कुल 425 सदस्यीय संविधान समिति का गठन किया गया था जिसमें केवल 15 महिलाएं ही थीं, अम्मू स्वामीनाथन उनमें से एक थी।

सबकी लाडली थीं अम्मू


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अम्मू स्वामीनाथन ( गूगल फ्री इमेजेज)

अम्मू का जन्म केरल के पालघाट में अनाकारा जिले के एक ऊंची जाति के हिंदू परिवार में 22 अप्रैल 1894 को हुआ था। वह अपनी मां के घर में पली-बढ़ी थी। सबसे छोटी होने के कारण वो सबकी बहुत लाडली भी थीं।
इनके पिता की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी तो मां परिवार की मुखिया थीं और उनके मज़बूत व्यक्तित्व का असर अम्मू पर भी पड़ा। इनके घर में घर से दूर पढ़ने के लिए केवल लड़कों को ही भेजा जाता था, इसलिए अम्मू स्कूल नहीं गई। उन्हें घर पर ही मलयालम में थोड़ी बहुत शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला।

स्वामीनाथन से हुई अम्मू की शादी

13 साल की उम्र में अम्मू की मुलाकात स्वामीनाथन नाम के वकील से हुई। बचपन में अम्मू के पिता ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उनकी मदद की थी। छात्रवृत्तियों के सहारे स्वामीनाथन को देश-विदेश में पढ़ने का अवसर मिला। उन्होंने मद्रास में वकालत शुरू कर दी।
स्वामीनाथन ने जब घर बसाने की सोची, तो उन्हें मदद करने वाले अम्मू के पिता की याद आई। स्वामीनाथन ने अपना प्रस्ताव अम्मू की मां के सामने रख दिया-अगर उनकी बेटी शादी के लायक हो, तो वह उससे शादी करने के लिए उत्सुक है।

अम्मू की शादी का ब्राह्मण समाज में हुआ जमकर विरोध

अम्मू से जब पूछा गया? अम्मू तैयार हो गई पर शर्त रख दी कि मैं गांव में नहीं, शहर में रहूंगी। मेरे आने-जाने के बारे में कभी कोई सवाल न पूछे। स्वामीनाथन ने सारी शर्ते मान लीं।
उस जमाने में ब्राह्मण की शादी नायर महिला से नहीं होती था। इस शादी का ब्राह्मण समाज में काफी विरोध हुआ। स्वामीनाथन ने अम्मू से शादी की, विलायत जाकर कोर्ट मैरिज भी किया और अम्मू स्वामीनाथन हो गई।
जिस तरह से अम्मू ने अपने पति के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त की उससे पती चलता है कि अम्मू बचपन से ही एक आत्मविश्वासी और जोश से भरी हुई लड़की थीं। स्वामीनाथन एक पति की तरह ही नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक के रूप में भी अम्मू के जीवन में आए।
उन्होंने अम्मू के लिए टूयूशन लगवाया और उन्हें अग्रेजी लिखना-पढ़ना सीखाया। एक समय आया कि अम्मू अपने पति से भी आगे निकल गई और लोगों से बेझिझक बातचीत करने लगी।

अम्मू थीं लैंगिक और जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ

अम्मू ने लैंगिक और जातिगत उत्पीड़न का हर स्तर पर विरोध किया। वह हमेशा मानती थीं कि नायर एक पिछड़ी जाति है इसलिए नायर समुदाय में महिलाओं को जातिगत और लैंगिक दोनों ही तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। नायर समुदाय से होने के कारण अम्मू ने जातिगत उत्पीड़न को करीब से देखा था।
औपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण न कर पाने के बावजूद अम्मू ने समाज में महिलाओं के साथ हो रहे दोयम दर्जे़ के व्यवहार को बचपन में ही पहचान लिया था। उन्हें अपनी पारंपरिक शिक्षा घर में ही पूरी करनी पड़ी, जबकि केरल में मातृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था कायम है।

अम्मू ने किया महिला भारत संघ का गठन

साल 1917 में मद्रास में इन्होंने एनी बेसेंट, मार्गरेट, मालथी पटवर्धन, श्रीमती दादाभाय और श्रीमती अंबुजमल के साथ महिला भारत संघ का गठन किया। इस मंच की सहायता से महिलाओं ने समाज में उनकी स्थिति के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने का काम किया।
अम्मू साल 1946 में मद्रास निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा का हिस्सा बन गईं। वह 1952 में लोकसभा और 1954 में राज्यसभा के लिए चुनी गयीं। इसके साथ ही वो भारत स्काउट्स एंड गाइड (1960-65) और सेंसर बोर्ड की भी अध्यक्ष भी रहीं। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अम्मू सबसे अधिक सक्रिय रहीं।
किसी स्कूल और कॉलेज से शिक्षित न होने के बावजूद अम्मू स्वामीनाथन सिर्फ एक महिला ही नहीं, बल्कि कई संभावनाओं की कहानी हैं। उन संभावनों की जो तमाम महिलाओं में दबकर रह जाती हैं क्योंकि अनुकूल परिस्थिति और वातावरण में  प्रतिभा और हुनर सब बिखर कर रह जाते हैं।
( नोट: इस लेख को लिखने के लिए उनकी नतनी सुभाषिनी अली सहगल से बातचीत का सहारा लिया गया है। सुभाषिनी अली सहगल कई अखबारों में स्तंभकार हैं।)
3. एम. अनंतशयनम अय्यंगार

एम. ए. अय्यंगार  

एम. ए. अय्यंगार
एम. ए. अय्यंगार
पूरा नाममदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार
जन्म4 फ़रवरी1891
जन्म भूमितिरुपतिआंध्र प्रदेश
मृत्यु19 मार्च1978
नागरिकताभारतीय
पार्टीभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
पदलोकसभा अध्यक्ष और बिहार के राज्यपाल
शिक्षाकला स्नातक, वकालत (मद्रास लॉ कालेज)
लोकसभा अध्यक्ष कार्यकाल8 मार्च1956 - 16 अप्रॅल1962
अन्य जानकारीएक तेलुगू साप्ताहिक पत्रिका 'श्री वेंकटेश पत्रिका' के नियमित सम्पादन के अलावा अय्यंगार ने भारतीय संसद पर "अवर पार्लियामेंट" नामक पुस्तक भी लिखी।
मदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार (अंग्रेज़ीMadabhushi Ananthasayanam Ayyangar, जन्म: 4 फ़रवरी1891, मृत्यु: 19 मार्च1978भारत के दूसरे लोकसभा अध्यक्ष थे। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर के आकस्मिक निधन से पैदा हुई रिक्तता को भरने के लिए अध्यक्ष पद का दायित्व ग्रहण करके मदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार ने स्वतंत्रता की उपलब्धियों तथा नव गणतंत्र में स्वस्थ संसदीय संस्कृति को विकसित करने के अधूरे कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अपने आपको सर्वोपयुक्त सिद्ध किया। अय्यंगार ने छह दशक के अपने सार्वजनिक जीवन में, एक वकील, सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा स्वतंत्रता सेनानी के रूप में, उत्कृष्ट सांसद तथा लोक सभा अध्यक्ष और एक प्रतिष्ठित विद्वान् के रूप में, जीवन में जिस भी कार्यक्षेत्र को चुना उसमें अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी। ये बिहार के राज्यपाल भी रहे।

जीवन परिचय

मदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार का जन्म 4 फ़रवरी1891 को आंध्र प्रदेश की आध्यात्मिक नगरी तिरुपति के निकट तिरुचाणुर में हुआ था। देवस्थानम हाई स्कूल, तिरूपति में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात् अय्यंगार उच्च शिक्षा के लिए मद्रास चले गए। पचयप्पाज कॉलेज, मद्रास से कला स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने 1913 में 'मद्रास लॉ कॉलेज' से क़ानून में डिग्री प्राप्त की।

आरंभिक जीवन

अय्यंगार ने अपना जीवन गणित के अध्यापक के रूप में 1912 में आरंभ किया। 1915 में वे क़ानून के पेशे में आ गए। कुछ ही समय में वह एक पेशेवर वकील के रूप में स्थापित हो गए क्योंकि उनमें न्यायिक निर्णयों को याद रखने की अद्भुत क्षमता थी और जल्दी ही वे "निर्णयजन्य विधि के चलते-फिरते सारसंग्रह" के रूप में प्रख्यात हो गए। अय्यंगार इस व्यवसाय को मात्र जीविकोपार्जन का साधन नहीं मानते थे। उनकी इस बात में गहरी रुचि थी कि भारत की न्यायिक व्यवस्था में भारतीय जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप सुधार किए जाएं, और यह मात्र अंग्रेज़ी न्यायिक प्रणाली की एक शाखा बन कर न रह जाए। अतः उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की जमकर वकालत की तथा भारत सरकार से फेडरल न्यायालय के स्तर को बढ़ाकर इसे उच्चतम न्यायालय का दर्जा देने की मांग की। भारतीय न्यायिक प्रणाली में अंतिम अपील का प्राधिकार इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में निहित होने के कारण भारतीयों को जो कठिनाइयाँ पेश आती थीं और जिस प्रकार तिरस्कार सहना पड़ता था, उसके बारे में वह बहुत चिंतित थे। अय्यंगार एक सक्रिय वकील थे और अपने गृह नगर चित्तूर की 'बार एसोसिएशन' के अध्यक्ष भी थे।

स्वतंत्रता आंदोलन

अय्यंगार बहुत छोटी उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। वे अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अपने गृह राज्य के प्रमुख नेताओं में से एक थे। गांधी जी द्वारा अंग्रेज़ी के प्रति "असहयोग" के लिए किए गए आह्वान के प्रत्युत्तर में अय्यंगार ने 1921-22 के दौरान एक वर्ष के लिए अपना क़ानूनी अभ्यास भी बंद कर दिया।
1934 में जब कांग्रेस ने काउंसिलों के बहिष्कार की अपनी नीति वापस ली और 'सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली' के चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो अय्यंगार भारी बहुमत से असेम्बली के सदस्य निर्वाचित हुए। चुनाव लड़ने के पीछे कांग्रेस का उद्देश्य यही था कि सरकार में रहकर सरकार से संघर्ष किया जाए। तथ्यों और आंकड़ों के पूर्ण जानकार और स्वाभाविक रूप से वाद-विवाद में निपुण होने के कारण अय्यंगार ने जल्द ही केन्द्रीय विधान सभा में एक सशक्त वाद-विवादकर्ता सदस्य के रूप में अपनी छवि बना ली। वे पिछली कतार से अगली कतार में आ गए और फिर एक समय ऐसा भी आया कि ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब वे सभा में सरकार के विरुद्ध कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के हित में कोई जबरदस्त बात न कहते हों। सभा में अय्यंगार की इस उल्लेखनीय कार्यशैली से प्रभावित होकर एक यूरोपीय लेखक ने उनका ज़िक्र "सभा के एम्डेन" के रूप में किया था।[1]
भारत छोड़ो आंदोलन
1940 और 1944 के बीच, अय्यंगार को पहले "व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन" में और बाद में 1942 के "भारत छोड़ो आंदोलन" में भाग लेने के लिए लगभग तीन वर्ष के लिए कारावास की सजा भोगनी पड़ी। अय्यंगार ने देश के राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के अलावा समाज के दलित वर्गों के सामाजिक स्वातंत्र्य के लिए किए गए कई अन्य क्रियाकलापों में योगदान दिया। अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों से प्रेरित होकर अय्यंगार मंदिर में हरिजनों का प्रवेश और अपने गृह राज्य में अस्पृश्यता का उन्मूलन सुनिश्चित करने के लिए आरंभ किए गए इस तरह के आंदोलनों में सबसे आगे रहे। अय्यंगार ने बाद में, 'हरिजन सेवक संघ' के अध्यक्ष की हैसियत से हरिजनों के आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए।

राजनीतिक परिचय

अय्यंगार, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के अग्रणी नेताओं में से थे और स्वतंत्रता से पूर्व उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। वे ज़िला कांग्रेस कमेटी, चित्तूर के अध्यक्ष रहे। बाद में, उन्हें आंध्र प्रांतीय कांग्रेस कमेटी और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के लिए निर्वाचित किया गया। 1946-47 के दौरान, वे संसद में कांग्रेस पार्टी के सचिव भी रहे।

संविधान सभा के सदस्य

अय्यंगार ने संविधान सभा के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। संविधान सभा के संविधान निर्माण संबंधी कृत्य को इसके विधायी कृत्य से अलग करने के निर्णय के परिणामस्वरूप और बाद में जी. वी. मावलंकर के संविधान सभा (विधायी) के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किए जाने पर, अय्यंगार को इसके उपाध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया, वे संविधान सभा की संचालन समिति के भी सदस्य रहे। 1950-52 के दौरान अय्यंगार अंतरिम संसद के उपाध्यक्ष बने रहे। जब अंतरिम संसद द्वारा 1950 में पहली बार 'प्राक्कलन समिति' का गठन किया गया तो, अय्यंगार इसके सभापति निर्वाचित किए गए। उन्होंने दक्षता से इसकी बैठकों का संचालन किया और इस समिति के लिए नाम कमाया।

प्रथम लोकसभा उपाध्यक्ष

1952 में जब पहली लोक सभा का गठन हुआ तो अय्यंगार इसके उपाध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति से निर्वाचित हुए। उपाध्यक्ष के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए, अय्यंगार ने दो वर्षों के लिए लोक सभा की प्राक्कलन समिति के सभापति और अगले दो वर्षों के लिए रेल अभिसमय समिति के सभापति पद का अतिरिक्त दायित्व भी संभाला।

लोकसभा अध्यक्ष

लोकसभा उपाध्यक्ष का दायित्व उन्होंने तब तक संभाला जब तक कि वह अध्यक्ष मावलंकर के अचानक निधन के पश्चात् 8 मार्च1956 को सर्वसम्मति से लोक सभा के अध्यक्ष निर्वाचित नहीं किए गए। लोक सभा के अध्यक्ष का सर्वोच्च पद धारण करना उनके उस विधायी जीवन का चरमोत्कर्ष था जो 1934 में केन्द्रीय विधान सभा से शुरू हुआ था। उस समय तक अय्यंगार पहले ही अपने आपको लम्बे अनुभव और संसदीय संस्थाओं के कार्यकरण और उनकी प्रक्रिया और कार्य संचालन के ज्ञान से एक मुखर और प्रभावशाली सांसद सिद्ध कर चुके थे। वह संसदीय मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे अत्यधिक विनोदी स्वभाव के थे और विनोदप्रियता से वे न केवल संसदीय कार्यवाही को जीवंत बना देते थे, अपितु उनका यह स्वभाव कई बार उन्हें अपनी बात और अधिक प्रभावशाली और रोचक ढंग से संसद में रखने में मदद करता था। जब 1957 में दूसरी लोक सभा का गठन हुआ तब एक बार पुनः अय्यंगार अगले पांच वर्षों के लिए अध्यक्ष पद के लिए सभा की सर्वसम्मत पसंद बने। अध्यक्ष के रूप में अय्यंगार ने जो असंख्य विनिर्णय और टिप्पणियाँ दीं, वे स्पष्ट रूप से उनके राजनीतिक दर्शन, विधिक-कुशाग्रता, संसदीय प्रक्रियाओं में उनकी निपुणता और उनके प्रति सम्मान की भावना, प्रशासन की गतिशील शक्तियों की समझ और देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं और हितों की पहचान को दर्शाती है। उनके सामने जो प्रश्न उठाए गए, उन पर उन्होंने संक्षिप्त और स्पष्ट विनिर्णय दिए। उन्हें ऐसे अनेक विनिर्णयों और निदेशों का श्रेय जाता है, जिनके द्वारा भारतीय गणतंत्र के शैशव-काल के वर्षों में अनेक जटिल संसदीय मुद्दों को सुलझाया गया।
1962 में अध्यक्ष पद छोड़ने पर अय्यंगार की उसी प्रकार प्रशंसा की गयी जिस प्रकार 1956 में श्री दादा साहेब मावलंकर की की गयी थी। इन्हीं दोनों प्रतिष्ठित अध्यक्षों के कारण भारत में एक मजबूत और स्वस्थ संसदीय संस्कृति की नींव डाली जा सकी। भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं, संसदीय संस्थाओं के प्रति उनकी पूरी प्रतिबद्धता, सभा की गरिमा को बनाए रखने में उनकी सतर्कता, सदस्यों की प्रतिष्ठा और संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों तथा स्वस्थ संसदीय प्रक्रियाओं और परिपाटियों को विकसित करने में उनके अथक प्रयासों के लिए उनकी ऋणी हैं।

सांसद के रूप में

अय्यंगार एक सक्रिय सांसद रहे तथा वे बाद के वर्षों में सक्रिय राजनीतिक जीवन से सन्न्यास लेने के बाद भी कई सामाजिक-सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठनों से जुड़े रहे। इन संगठनों में हरिजन सेवक संघ, राम विलास सभा, ड्रामेटिक एसोसिएशन ऑफ चित्तूर, द कंस्टीटयूशन क्लब तथा इडियन एसोसिएशन ऑफ वर्ल्ड फेडरल गवर्नमेंट शामिल हैं। 1962 के आम चुनावों में अय्यंगार तीसरी बार लोक सभा के लिए चुने गये। तथापि, उन्होंने बिहार के राज्यपाल के रूप में चुने जाने के तत्काल पश्चात् ही अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस तरह उनके लगभग तीन दशक लम्बे उत्कृष्ट संसदीय कार्यकाल का अंत हुआ। निसंदेह, इस लम्बे सेवा काल के माध्यम से एक संस्था के रूप में संसद और सामान्यतः सम्पूर्ण देश अय्यंगार के ज्ञान, उनकी संसदीय निपुणता और राजनीति, धर्म और राष्ट्रीय समस्यओं के बारे में उनके व्यापक दृष्टिकोण से अत्यधिक लाभान्वित हुए।

बिहार के राज्यपाल

बिहार के राज्यपाल के रूप में, एक पूरे कार्यकाल तक सेवा करने के पश्चात् अय्यंगार ने सक्रिय राजनीतिक जीवन से सन्न्यास ले लिया और अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताने के लिए अपने गृहनगर तिरूपति चले गए। इस अवस्था में भी अय्यंगार बहुत सक्रिय रहे।

शिक्षा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान

संसदीय जीवन के बाद अय्यंगार का सबसे बड़ा योगदान शिक्षा के क्षेत्र में था। अय्यंगर एक विद्वान् मनीषी थे जो भारत विद्या (इंडोलॉजी) तुलनात्मक धर्मदर्शनसंस्कृतसंस्कृत साहित्य और अन्य विविध विषयों के प्रकांड पंडित थे। अपने सम्पूर्ण जीवन में उन्होंने संस्कृत और भारतीय संस्कृति के अध्ययन और प्रचार-प्रसार में बहुत रुचि ली। उन्होंने कुछ समय तक केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य किया और बाद में वे ऋषिकुल विश्वविद्यालय, हरिद्वार के उपकुलपति रहे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए श्री वैष्णव थियोलॉजिकल विश्वविद्यालय, वृन्दावन ने 1954 में उन्हें 'डॉक्टरेट ऑफ लिटरेचर' (साहित्य वाचस्पति) की मानद उपाधि से सम्मानित किया। एक तेलुगू साप्ताहिक पत्रिका 'श्री वेंकटेश पत्रिका' के नियमित सम्पादन के अलावा अय्यंगार ने भारतीय संसद पर "अवर पार्लियामेंट" नामक पुस्तक भी लिखी थी।

धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व

अय्यंगार मानव जाति की मूलभूत एकता में विश्वास करते थे और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर और देश में धार्मिक एकता के समर्थक थे। उन्हें धार्मिक उन्माद फैलाने और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का दुरुपयोग करने वालों से बहुत पीड़ा होती थी। उनका विश्वास था कि लोगों को साप्रदायिकता के खतरों के बारे में संवेदनशील बनाने का सर्वोत्तम तरीका सभी धर्मों के सही सारतत्व के बारे में जन-जागृति लाना है। उनका विचार था कि धर्मों का विकास मुख्यतः व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के मतभेदों को दूर करने में सहायता करने तथा व्यक्ति में भ्रातृत्व की भावना अन्तर्निविष्ट करने और उसके द्वारा उसका उत्थान करने के लिए किया गया है।

जाति-व्यवस्था की बुराइयों के विरुद्ध

अय्यंगार उन राष्ट्रीय नेताओं में से थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे पहले अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था की बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में भाग लिया था। उनका विश्वास था कि ऐतिहासिक दृष्टि से जाति-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संरचना का मूल अंग नहीं थी अपितु इस व्यवस्था को इसमें बाद में शामिल किया गया। अय्यंगार के अनुसार उच्च जाति या निम्न जाति जैसी कोई चीज़ नहीं, अपितु केवल चेतना की उच्चतर स्थिति या चेतना की निम्नतर स्थिति होती है। इन दोनों स्थितियों का जन्म से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका विश्वास था कि जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति को उसके पूजा के अधिकार से वंचित करना स्वयं ईश्वरत्व के विरुद्ध अपराध है। इसी विश्वास ने उन्हें हिंदू मंदिरों में दलितों के प्रवेश के अधिकार का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे हरिजनों के उत्थान के लिए संधर्ष करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे।

निधन

19 मार्च1978 को 87 वर्ष की आयु में अनन्तशयनम अय्यंगार का निधन हो गया। वह अंतिम समय तक तिरुपति में संस्कृत विद्यापीठ और अनेक धर्मार्थ संगठनों के कार्यों में व्यस्त रहे।
3. मोतूरी सत्यनारायण

मोटूरि सत्यनारायण

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Dr Moutri Satyanarayan.jpg
मोटूरि सत्‍यनारायण (२ फ़रवरी १९०२ - ६ मार्च १९९५) दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार आन्दोलन के संगठक, हिन्दी के प्रचार-प्रसार-विकास के युग-पुरुष, महात्मा गांधी से प्रभावित एवं गाँधी-दर्शन एवं जीवन मूल्यों के प्रतीक, हिन्दी को राजभाषा घोषित कराने तथा हिन्दी के राजभाषा के स्वरूप का निर्धारण कराने वाले सदस्यों में दक्षिण भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक थे। वे दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभाराष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निर्माता भी हैं।

जीवनवृत्त[संपादित करें]

श्री मोटूरि सत्यनारायण का जन्म आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के दोण्पाडु ग्राम में हुआ था।

पद एवं कार्य

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के प्रचार संगठक, आंध्र-प्रान्तीय शाखा के प्रभारी, मद्रास (चेन्नै) की केन्द्र सभा के परीक्षा मंत्री, प्रचारमंत्री, प्रधानमंत्री (प्रधान सचिव), राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रथम मंत्री, भारतीय संविधान सभा के सदस्य, राज्यसभा के मनोनीत सदस्य (प्रथम बार-१९५४ में), केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के संचालन के लिए सन १९६१ में भारत सरकार के शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा स्थापित ‘केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल' के प्रथम अध्यक्ष (चेयरमेन), राज्य सभा के दूसरी बार मनोनीत सदस्य, केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल के दूसरी बार अध्यक्ष (१९७५ से १९७९)। उन्होने विज्ञानसंहिता नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की। वे प्रयोजनमूलक हिन्दी के विचार के जनक थे।

उपाधियाँ एवं सम्‍मान

भारत सरकार, अनेक विश्‍वविद्‌यालयों, दक्षिण भारत की हिन्‍दी प्रचार-प्रसार की संस्‍थाओं एवं केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान द्वारा सम्‍मानित।
विशेष उल्‍लेखनीय :-
१. पद्म भूषण १९६२ में (भारत सरकार)
२. डी. लिट्‌. (मानद) (आन्ध्र विश्वविद्यालय)
३. हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण के क्षेत्र में उल्‍लेखनीय कार्य के लिए ‘गंगा शरण सिंह पुरस्कार' प्राप्त विद्वानों में सर्वप्रथम है।
४. उनके सम्मान में केंद्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रति वर्ष, भारतीय मूल के किसी विद्वान को विदेशों में हिंदी प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय कार्य के लिए, 'पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार' से सम्मानित किया जाता है।

4. श्रीमती दाक्षायनी वेलायुदन

5. श्रीमती जी. दुर्गाबाई
दक्षिणी राज्यों में, आंध्र में महिलाओं का सत्याग्रहों का सबसे बड़ा दल योगदान करने का अनूठा गौरव था, जो कि कठिनाइयों से बेखबर, जेलों में प्रवेश करता था। 1 9 22 के असहयोग आंदोलन में, बारह साल की एक जवान लड़की काकीनाडा में सत्याग्रह की पेशकश की। इस युवा लड़की, दुर्गाबाई, बाद में एक अनोखी संगठन स्थापित करके अपनी गतिशील क्षमताओं का प्रदर्शन करते हैं – आंध्र महिला सभा – जिसे पूरे दक्षिण भारत के महिलाओं के कल्याण और शैक्षिक संस्थानों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
दुर्गाबाई देशमुख (१५ जुलाई, १९०९ - ९ मई, १९८१) भारत की स्वतंत्रता सेनानी तथा सामाजिक कार्यकर्ता तथा स्वतंत्र भारत के पहले वित्तमंत्री चिंतामणराव देशमुख की पत्नी थीं।
आंध्र प्रदेश से स्वाधीनता समर में सर्वप्रथम कूदने वाली महिला दुर्गाबाई का जन्म राजमुंदरी जिले के काकीनाडा नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माता श्रीमती कृष्णवेनम्मा तथा पिता श्री रामाराव थे। पिताजी का देहांत तो जल्दी ही हो गया था; पर माता जी की कांग्रेस में सक्रियता से दुर्गाबाई के मन पर बचपन से ही देशप्रेम एवं समाजसेवा के संस्कार पड़े।
दुर्गाबाई देशमुख ने आन्ध्र महिला सभा, विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी निकेतन जैसी कई संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं के उत्थान के लिए अथक प्रयत्न किये। योजना आयोग द्वारा प्रकाशित ‘भारत में समाज सेवा का विश्वकोश उन्हीं के निर्देशन में तैयार हुआ। आंध्र के गांवों में शिक्षा के प्रसार हेतु उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अनेक विद्यालय, चिकित्सालय, नर्सिंग विद्यालय तथा तकनीकी विद्यालय स्थापित किये। उन्होंने नेत्रहीनों के लिए भी विद्यालय, छात्रावास तथा तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र खोले।
शिक्षा:दुर्गाबाई के बाल्यकाल के दिनों में बालिकाओं को विद्यालय नहीं भेजा जाता था। पर दुर्गाबाई में पढ़ने की लगन थी। उन्होंने अपने पड़ोसी एक अध्यापक से हिन्दी पढ़ना आरंभ कर किया। उन दिनों हिन्दी का प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय आंदोलन का एक अंग था। दुर्गाबाई ने शीघ्र ही हिन्दी में इतनी योग्यता अर्जित कर ली कि 1923 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय खोल लिया। गांधी जी ने इस प्रयत्न की सराहना करके दुर्गाबाई को स्वर्णपदक से सम्मानित किया था।
जेल यात्रा:अब दुर्गाबाई सक्रिय रूप से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगीं। वे अपनी माँ के साथ घूम-घूम कर खद्दर बेचा करती थीं। नमक सत्याग्रह में उन्होंने प्रसिद्ध नेता टी. प्रकाशम के साथ भाग लिया। 25 मई, 1930 को वे गिरफ्तार कर लीं और एक वर्ष की सज़ा हुई। सज़ा काटकर बाहर आते ही फिर आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें पुनः गिरफ्तार करके तीन वर्ष के लिए जेल में डाल दिया। जेल की इस अवधि में दुर्गाबाई ने अपना अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान बढ़ाया।
महिला वकील: बाहर आने पर दुर्गाबाई ने मद्रास विश्वविद्यालय में नियमित अध्ययन आरंभ किया। वे इतनी मेधावी थीं कि एम.. की परीक्षा में उन्हें पांच पदक मिले। वहीं से क़ानून की डिग्री ली और 1942 में वकालत करने लगीं। कत्ल के मुक़दमे में बहस करने वाली वे पहली महिला वकील थीं।
महत्त्वपूर्ण योगदान: दुर्गाबाई 1946 में लोकसभा और संविधान परिषद् की सदस्य चुनी गईं। उन्होंने अनेक समितियों में महत्त्वपूर्ण योग दिया। 1952 में दुर्गाबाई ने सी. डी. देशमुख के साथ विवाह कर लिया। वे अनेक समाजसेवी और महिलाओं के उत्थान से संबंधित संस्थाओं की सदस्य रहीं। योजना आयोग के प्रकाशन भारत में समाज सेवा का विश्वकोश उन्हीं की देखरेख में निकला। 1953 में दुर्गाबाई देशमुख ने केन्द्रीय सोशल वेलफेयर बोर्ड की स्थापना की और उसकी अध्यक्ष चुनी गईं।
निजी जीवन: गुमुमिथिला परिवार में राजामुंदरी, आंध्र प्रदेश, ब्रिटिश भारत में जन्मे; दुर्गाबाई का विवाह 8 वर्ष की उम्र में उनके चचेरे भाई सुब्बा राव से हुआ था। उसने परिपक्वता के बाद उसके साथ रहने से इनकार कर दिया, और उसके पिता और भाई ने अपना निर्णय समर्थित किया। बाद में उन्होंने अपनी शिक्षा का पीछा करने के लिए उन्हें छोड़ दिया।
1953 मेंउन्होंने भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री चिंतामण देशमुख से शादी की अपने खाते के अनुसारप्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू तीन गवाहों में से एक थे। सी डी डी देशमुख की पिछली शादी से एक बेटी थीलेकिन जोड़ी बेमिसाल बनी रही। हालांकि उन्होंने सुब्बा राव के साथ अलग-अलग तरीके जुटाए थेलेकिन उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद उनकी विधवा तिम्मायम्मा का समर्थन किया। टिममायम्मा दुर्गाबाई और चिंतामण देशमुख के साथ रहते थेऔर दुर्गाबाई ने भी उनके लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था।
दुर्गाबाई देशमुख ने  स्टोन यू स्पीकेथ नामक एक पुस्तक की रचना की। उनकी आत्मकथा चिंटमान और मैं उनकी मृत्यु 1 9 81 में एक साल पहले प्रकाशित हुई थी।
नारसनपेटा श्रीकाकुलम जिले में उनकी मृत्यु हो गई।
पुरस्कार
 पॉल जी हॉफ़मैन पुरस्कार
 नेहरू साक्षरता पुरस्कार
यूनेस्को पुरस्कार (साक्षरता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए)
भारत सरकार से पद्म विभूषण पुरस्कार
जीवन पुरस्कार और जगदीश पुरस्कार
दुर्गाबाई द्वारा स्थापित संगठन
  1 9 38 में आंध्र महिला सभा
सामाजिक विकास परिषद
 1 9 62 में दुर्गाबाई देशमुख अस्पताल
 श्री वेंकटेश्वरा कॉलेजनई दिल्ली
आंध्र एजुकेशन सोसाइटी (एईएस) की स्थापना 1 9 48 में डॉ। दुर्गाबाई देशमुख ने दिल्ली में रहने वाले तेलुगु बच्चे की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की थी।
   
6. काला वेंकटराव
 :  जन्म- 7 जुलाई1900, पश्चिमी गोदावरी ज़िला, आंध्र प्रदेश; मृत्यु- 28 मार्च1959दक्षिण भारत के एक प्रमुख राजनैतिक कार्यकर्ता थे। इन्होंने गाँधी जी के 'असहयोग आंदोलन' में भाग लिया था।
प्रसिद्धिस्वतंत्रता सेनानी
जेल यात्राकाला वेंकटराव विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने के कारण 8 बार जेल गये।
संबंधित लेखमहात्मा गाँधीअसहयोग आंदोलनभारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
अन्य जानकारीकाला वेंकटराव 1947 से 1959 तक वे पहले मद्रास और फिर आंध्र प्रदेश बन जाने पर वहां विभिन्न विभागों के मंत्री रहे।

संक्षिप्त परिचय

  • असहयोग आंदोलन मेंं भाग लेने के लिए काला वेंकटराव ने अपनी बी.ए. की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी, जो बाद में उन्होंने गुजरात विद्यापीठ से पूरी की।
  • 1921 से आरंभ उनकी सक्रियता स्वतंत्रता संग्राम में बराबर बनी रही। वे विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने के कारण 8 बार जेल गये और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण भी जेल गए। इसके बाद वे 1945 में ही जेल से बाहर आ सके।
  • काला वेंकटराव 1937 में मद्रास विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे।
  • 1946 में वे देश की संविधान परिषद के सदस्य बने थे।
  • 1947 से 1959 तक वे पहले मद्रास और फिर आंध्र प्रदेश बन जाने पर वहां विभिन्न विभागों के मंत्री रहे।
  • काला वेंकटराव भूमि सुधार के विशेष ज्ञाता थे। वे पट्टाभि सीतारामैया के प्रमुख सहयोगी रहे थे।
  • काला वेंकटराव का निधन 28 मार्च1959 को हुआ।
7. नरसिंह अयंगर गोपालस्वामी अयंगर (31 मार्च 1882 – 10 फरवरी 1953), संविधान सभा की निर्मात्री समिति के सदस्य, राज्य सभा के नेता, भारत की पहली मन्त्रिपरिषद में कैबिनेट मन्त्री थे।[1] सन १९३७ से १९४३ तक वे जम्मू कश्मीर के प्रधानमन्त्री थे। स्वतन्त्र भारत में पहले जब वे बिना विभाग के मन्त्री थे तब वे कश्मीर से सम्बन्धित मामले देखा करते थे। ये आयंगर ही थे जिन्होंने अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का काम किया था।[2]
एन. गोपालस्‍वामी अयंगर
Gopalaswamy Ayyangar.jpg

रेलवे तथा यातायात मन्त्री
पद बहाल
22 सितम्बर 1948 – 13 मई 1952
राजाकिंग जॉर्ज षष्ट (1936-1950)
राष्ट्रपतिराजेन्द्र प्रसाद
प्रधानमंत्रीजवाहरलाल नेहरू
उत्तरा धिकारीलाल बहादुर शास्त्री

जम्मू और कश्मीर के प्रधानमन्त्री
पद बहाल
1937–1943
राजाहरि सिंह
उत्तरा धिकारीकैलाश नाथ हस्कर

जन्म31 मार्च 1882
तंजावुर जिला, मद्रास प्रेसिडेन्सी
मृत्यु10 फ़रवरी 1953 (उम्र 70)
मद्रास
(अब चेन्नै)
जन्म का नामनरसिंह अयंगर गोपालस्वामी अयंगर

भारत की प्रथम मन्त्रिपरिषद में गोपालस्वामी अयंगर (बाएँ से चौथे, खड़े हुए ;३१ जनवरी १९५०)

जीवन परिचय[संपादित करें]

गोपालस्वामी आयंगर का जन्म दक्षिण भारत में मद्रास प्रेसिडेन्सी के तंजावुर जिले में 31 मार्च 1882 को हुआ था। उन्होंने वेस्टले स्कूल तथा प्रेसिडेंसी कॉलेज और मद्रास लॉ कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। उनकी पत्नी का नाम कोमलम था। उनके बेटे जी पार्थसारथी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
1904 में, थोड़े समय के लिए, उन्होंने चेन्नई के पचयप्पा कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में भी काम किया। 1905 में मद्रास सिविल सेवा में भर्ती हुए। सन् 1919 तक वे डिप्टी कलेक्टर रहे । 1920 से जिला कलेक्टर के रूप में काम किया। 1932 में उन्हें लोक सेवा विभाग के सचिव के पद पर पदोन्नति मिली। 1937 में वे राजस्व बोर्ड के सदस्य बने।
सन् 1937 में ही आयंगर को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बना दिया गया। तब जम्मू-कश्मीर के अपने प्रधानमंत्री और सदर-ए-रियासत होते थे। सदर-ए-रियासत की भूमिका राज्यपाल के समकक्ष होती थी। लेकिन प्रधानमंत्री की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व समय के अनुसार बदलते रहते थे। गोपालस्वामी आयंगर के कार्यकाल के दौरान उनके पास सीमित शक्तियां ही थीं। अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद भी उन्होंने कश्मीर के लिए काम करना जारी रखा।
२६ अक्टूबर १९४७ को जब कश्मीर का भारत में विलय हुआ तब जवाहरलाल नेहरू कश्मीर मामले को देख रहे थे। परन्तु वे सीधे तौर पर खुद इससे नहीं जुड़े थे बल्कि इसकी जिम्मेदारी आयंगर को ही सौंप दी थी जो उस समय बिना विभाग के मंत्री थे।
जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का मसौदा तैयार किए जाने के बाद गोपालस्वामी आयंगर के ऊपर उस मसौदे को संसद में पारित कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। जब वल्लभ भाई पटेल ने इस पर सवाल उठाया तो नेहरू ने जवाब दिया, "गोपालस्वामी आयंगर को विशेष रूप से कश्मीर मसले पर मदद करने के लिए कहा गया है क्योंकि वे कश्मीर पर बहुत गहरा ज्ञान रखते हैं और उनके पास वहां का अनुभव है। नेहरू ने यह भी कहा कि अयांगर को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। नेहरू ने कहा था- "मुझे यह नहीं समझ आता कि इसमें आपका (गृह) मन्त्रालय कहां आता है, सिवाए इसके कि आपके मंत्रालय को इस बारे में सूचित किया जाए। यह सब मेरे निर्देश पर किया गया है और मैं अपने उन कामों को रोकने पर विचार नहीं करता जिसे मैं अपनी ज़िम्मेदारी मानता हूं। आयंगर मेरे सहकर्मी हैं।"
इसके बाद, आयंगर ने कश्मीर विवाद पर संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व किया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को बताया कि भारतीय सेना राज्य के लोगों की सुरक्षा के लिए वहां गई है और एक बार घाटी में शांति स्थापित हो जाए तो वहां जनमत संग्रह कराया जाएगा। गोपालस्वामी आयंगर और संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के प्रतिनिधि ज़फ़रुल्लाह ख़ान के बीच कश्मीर मुद्दे पर जुबानी जंग चली। गोपालस्वामी ने तर्क दिया कि "कबायली अपने-आप भारत में नहीं घुसे, उनके हाथों में जो हथियार थे वो पाकिस्तानी सेना के थे।"
बाद में गोपालस्वामी भारत के रेल और परिवहन मंत्री भी बने। 71 साल की आयु में फरवरी 1953 में चेन्नई में उनका निधन हो गया।
8. डी. गोविंद दास
रेवरेन्ड जेरोम डी सूज़ा
पी. कक्कन
के. कामराज
वी.सी. केशवराव
टी.टी. कृष्णामाचारी
अलादि कृष्णास्वामी अय्यर
एल. कृष्णास्वामी भारती
पी. कुन्हीरामन
एम.तिरुमाला राव
वी.आई. मुनिस्वामी पिल्ले
एम.ए. मुत्थय्या चेट्टिया
वी. नडीमुत्थु पिल्लई
एस. नागप्पा
पी.एल. नरसिंह राजू
बी. पट्टाभि सीतारामय्या
सी. पेरुमलस्वामी रेड्डी
टी. प्रकाशम
एस.एच. प्रेटर
बोब्बिलि के राजा श्वेतचलपति रामकृष्ण रंगाराव
आर.के. षण्‌मुखम चेट्टी
टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार
रामनाथ गोयनका
ओ.पी. रामास्वामी रेड्डियार
एन.जी. रंगा
एन. संजीवा रेड्डी
के. संतानम
बी. शिवराव
कल्लूर सुब्बा राव
यू. श्रीनिवास मल्लय्या
पी. सुब्बरायन
सी. सुब्रमण्यम
वी. सुब्रमण्यम
एम.सी. वीरबाहु
पी.एम. वेलयुदपाणि
ए.के. मेनन
टी.जे.एम. विल्सन
मोहम्मद इस्माइल सादिब
के.टी.एम. अहमद इब्राहिम
महबूब अली बेग साहिब बहादुर
बी. पॉकर साहिब बहादुर

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